महाभारत का युद्ध एक विनाशकारी घटना थी जिसमें भाग लेने वाले लगभग सभी योद्धा मृत्यु को प्राप्त हुये। इस विध्वंस से ना जाने कितने घर उजड़ गये। कितनी स्त्रियाँ विधवा हो गईं तथा कितने बाल अनाथ हो गये।
इतिहासकार तो इस युद्ध संसार का सबसे पहला विश्व युद्ध भी मानते हैं।
पुरातन काल से इस युद्ध का मूल कारण द्रौपदी को माना जाता है जो कि एक सङ्कीर्ण दृष्टि तथा पुरुष प्रधान समाज की अवधारणा है। यदि महाभारत में घटित प्रत्येक घटनाक्रम का मूल्याङ्कन किया जाये तो आपको ज्ञात होगा कि सुयोधन (दुर्योधन) की पाण्डवों प्रति घृणा तथा अपने बल पर मद ही महाभारत के युद्ध का कारण थे। समकालीन योद्धाओं के निरङ्कुश सहयोग से दुर्योधन का अहंकार बढ़ता ही गया तथा अन्त में सभी को विनाश का ग्रास बना दिया।
परन्तु एक ऐसी घटना है जो कि इस विनाश के मूल को ही काट सकती थी। वो थी महात्मा विदुर की नीति तथा न्याय के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा। उनके कहने पर ही हस्तिनापुर का राज्य पाण्डु के पास आया भले ही धृतराष्ट्र अग्रज थे। विदुर ने बताया कि शास्त्रों के अनुसार एक अन्ध व्यक्ति राजा नहीं बन सकता। इस लिये पाण्डु को राज मिला। होनी का खेल देखिये कि पाण्डु की अकाल मृत्यु के कारण कार्यकारी नरेश का भार धृतराष्ट्र के कन्धों पर ही आया। यदि पाण्डु अकाल मृत्यु को प्राप्त ना होते तो वो राजा होते तथा युद्धिष्ठिर को ही हस्तिनापुर का राज्य मिलता।
परन्तु इसी भार के चलते दुर्योधन की ये धारणा बन गई कि वो राजा का पुत्र है इस लिये हस्तिनापुर का भावी राजा वही होगा। उसके मन में शास्त्रों अनुसार उसके पिता का राज्य पद के लिये अयोग्य होना स्वीकार नहीं हुया तथा वो उसे अपने पिता के प्रति एक अन्याय के रूप में देखता रहा। यहीं से महाभारत के युद्ध का आरम्भ हो गया था।
यद्यपि धृतराष्ट्र को पहले ही से राजा घोषित किया होता तो कभी दुर्योधन के भावी राजा होने पर प्रश्न ही ना उठता।
निष्कर्ष स्वरूप यही कहना चाहता हूँ कि महाभारत का युद्ध होना नीयति थी परन्तु यदि महात्मा विदुर उस समय शास्त्रार्थ ना करते तथा अपने अग्रज धृतराष्ट्र को ही राजा बनने देते, महाभारत के युद्ध का बीजारोपण ही ना होता।