गाण्डीव धनुष का इतिहास बड़ा रहस्यमय है। इसके इतिहास में कई धनुषों का इतिहास छिपा है। यों महाभारत में तो इसके सम्बन्ध में इतना ही कहा गया है कि खाण्डव दाह के समय अग्नि ने उसे वरुण से माँगकर अर्जुन को दिया था (आदिपर्व 225) तथा महाप्रस्थान के समय उसे वरुण को ही वापस करने के लिये अर्जुन से पुनः माँगा और अर्जुन ने उसे पानी में फेंक दिया था।(महाप्रास्थानिका पर्व 141-42)। विराट पर्व में स्वयं अर्जुन ने इसे ब्रह्मा, इन्द्र, सोम तथा वरुण द्वारा धारण किये जाने की भी बात बतलायी है।
किंतु यह धनुष वरुण के पास कैसे आया, इस सम्बन्ध में विष्णु धर्मोत्तर पुराण के प्रथम खण्ड के 65-66-67 अध्यायों में एक बड़ी रोचक कथा आती है। कई पुराणों में तथा इसमें भी परशुराम जी के कैलास में रहकर शङ्कर जी से शस्त्र तथा शास्त्र विद्या ग्रहण करने की बात आयी है। उनके वहीं रहते हुए इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान् शङ्कर ने परशुराम द्वारा बहुत-से राक्षसों को भी मरवा डाला। इसके पश्चात् इन्द्र ने परशुराम द्वारा पाताल वासी राक्षसों को मरवाने के लिये भगवान् शङ्कर से प्रार्थना की। भगवान् ने कहा- ‘ऐसा ही होगा।‘ तत्पश्चात् उन्होंने परशुराम जी को बुलाकर कहा कि ‘तुम पाताल में जाओ और वहाँ के दुराचारी असुरों का संहार करो। श्रेष्ठ वैष्णव धनुष को मैंने तुम्हारे पिता को दे दिया है। साथ ही इस अक्षय तूण को भी ले लो। इनके सहारे तुम उन राक्षसों को मार डालो।‘ फिर तूण देकर भगवान् शङ्कर ने उनसे कहा कि ‘देखो, तुम इस तरकस को तो महर्षि अगस्त्य को दे देना और वे उसे अतियशस्वी श्रीरघुकुलभूषण राघवेन्द्र राम को देंगे।‘ (वाल्मीकि-रामायण कथा के अरण्यकाण्ड के 12वें अध्याय के अन्त में आती है)।
तुम भी श्रीराम के दर्शन के बाद शस्त्र मत धारण करना। तुम्हारा अत्यन्त प्रचण्ड वैष्णव तेज राम के मिलते ही देव कार्यार्थ उनमें प्रवेश कर जायेगा।‘
भगवान् शंकर की आज्ञा से परशुराम जी ने सब कुछ वैसा ही किया। पर इससे स्पष्ट होता है कि वही धनुष परशुराम जी ने भगवान् रामचन्द्र को दिया और वही आगे चलकर पुनः वरुण द्वारा अर्जुन को मिला तथा यही वह गाण्डीव था।
(गीता प्रैस द्वारा प्रकाशित पत्रिका कल्याण में से पण्डित श्रीजानकी नाथ जी शर्मा द्वारा लिखे गये एक लेख से लिया गया)