अनशन करना आधुनिक राजनीतिक प्रतिनिधियों तथा सामाजिक जीर्णता को भङ्ग करने हेतु प्रयासरत कार्यकर्ताओं का बाण नहीं है। अनशन की प्रथा पूर्व काल से ही भिन्न प्रकार के प्रयोजनों के लिये प्रयोग में लायी जाती रही है।
एक समय ऐसा भी आया था जब दुर्योधन ने आत्मग्लानि से भरकर आमरण अनशन करने की ठान ली थी। इस आत्महत्या के निर्णय से कर्ण, शकुनि तथा दुःशासन सभी व्यथित थे पर दुर्योधन का संताप मिटाये नहीं मिट रहा था।
यह बात उस समय की है जब पाण्डवों को और अधिक पीड़ा पहुँचाने हेतु दुर्योधन अपने मित्रों सहित वन में आया। परन्तु वहाँ गन्धर्वों से उसकी सेना की किसी बात पर कटु संवाद होने के कारण युद्ध की स्थिति बन आयी। दुर्योधन अपने सैन्य बल तथा कर्ण के सङ्ग से मद में चूर रहता था इस लिये वो गन्धर्वों से युद्ध के लिये उद्यत हो उठा। युद्ध हुआ। कर्ण के साथ साथ सभी कौरव वहाँ से भाग निकले तथा गन्धर्वों ने दुर्योधन को बन्धी बना लिया।
पाण्डवों ने ही अपना वैर त्यागकर दुर्योधन का छुड़वाया।
इस घटना के रहते दुर्योधन आत्मग्लानि से भर गया कि जिन पाण्डवों को कष्ट पहुँचाने के लिये वो हर समय प्रयास करता रहता है उन्ही से अपने प्राणों की रक्षा हेतु उसे सहायता माँगनी पड़ी।
बस उसने आमरण अनशन का निश्चय कर लिया। दुःशासन को राजा घोषित कर दिया।
यत् त्वद्य मे व्यवसितं तच्छृणुध्वं नरर्षभाः।।
इह प्रायमुपासिष्ये यूयं व्रजत वै गृहान्।
(नरश्रेष्ठ वीरो। अब मैंने जो निश्चय किया है वो सुनो। मैं यहाँ आमरण अनशन करूँगा। तुम सब लोग घर लौट जाओ।)
कर्ण तथा शकुनि इत्यादि के समझाने पर भी जब वो नहीं माना तो कृत्या नामक दैत्य ने उसे रसातल में बुलाकर समझाया। दैत्यों के अर्जुन वध के आश्वासन से ही पुनः दुर्योधन ने राज्य स्वीकारा तथा अनशन का निश्चय त्याग दिया।
इस कथा से पाण्डवों की धर्मपरायणता, उदारता तथा क्षमत्व का पता चलता है।