महाभारत के पञ्च खण्ड में ज्वर की उत्पत्ति का वर्णन आता है। ज्वर की अनुभूति शरीर के तापमान से होती है हमारे जीवन में विश्राम हेतु आता है जब शरीर के किसी अङ्ग या प्रणाली के कार्य में बाधा अथवा व्याधि उत्पन्न होती है।
इस लेख से हम जानेंगे कि ज्वर की संकल्पना कैसे हुई।
पूर्व काल में सुमेर पर्वत का ज्योतिष्क नाम से प्रसिद्ध एक शिखर था. जो सविता (सूर्य) देवता से सम्बन्ध रखने के कारण सावित्र कहलाता था। वह सब प्रकार के रत्नों से विभूषित, अप्रमेय, समस्त लोकों के लिये अगम्य और तीनों लोकों द्वारा पूजित था। सुवर्णमय धात् से विभूषित उस पर्वत शिखर के तटपर बैठे हुये महादेव जी उसी प्रकार अपूर्व शोभा पाते थे मानो किसी सुन्दर पर्यङ्कर बैठे हों। वहीं प्रतिदिन उनके वामपार्श्व में रह कर गिरिराजनन्दिनी भगवती पार्वती भी अनुपम शोभा पाती थीं।
कुछ काल के अनन्तर दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति ने पूर्वोक्त शास्त्रीय विधान के अनुसार यज्ञ करने का संकल्प लेकर उसके लिये तैयारी आरम्भ कर दी। उस समय इन्द्र आदि सब देवताओं ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाने के लिये परस्पर मिलकर निश्चय किया। वे महामनस्वी देवता सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी विमानों पर बैठ कर महादेव जी की आज्ञा ले गङ्गाद्वार (हरिद्वार) को गये।
देवताओं को प्रस्थित हुआ देख सती साध्वी गिरिराज-नन्दनी उमा ने अपने स्वामी पशुपति महादेव जी से पूछा –
‘भगवान् ! ये इन्द्र आदि देवता कहाँ जा रहे हैं ? तत्त्वज्ञ परमेश्र्वर ! ठीक-ठीक बतायें। मेरे मन में यह महान संशय उत्पन्न हुआ है’।
महेश्वर ने कहा – महाभागे ! श्रेष्ठ प्रजापति दक्ष अश्वमेध यज्ञ करते हैं ; उसी में ये सब देवता जा रहे हैं।
उमा बोली – महादेव ! इस यज्ञ में आप क्यों नहीं पधार रहे हैं ? किस प्रतिबन्ध के कारण आपका वहाँ जाना नहीं हो रहा है?
महेश्वर ने कहा — महाभागे ! देवताओं ने ही पहले ऐसा निश्चय किया था। उन्होंने सभी यज्ञों में से किसी में भी मेरे लिये भाग नियत नहीं किया। पूर्व निश्चित् नियम के अनुसार धर्म की दृष्टि से ही देवता लोग यज्ञ में मुझे भाग नहीं अर्पित करते हैं।
उमा ने कहा – भगवन् ! आप समस्त प्राणियों में सबसे अधिक प्रभावशाली, गुणवान्, अजेय, अधृष्य, तेजस्वी, यशस्वी तथा श्रीसम्पन्न हैं। महाभाग ! यज्ञ में जो इस प्रकार आपको भाग देने का निषेध किया गया है, इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ है। अनघ ! इस अपमान से मेरा सारा शरीर काँप रहा है। अपने पति भगवान् पशुपति से ऐसा कह कर पार्वती देवी चुप हो गयीं, परन्तु उनका हृदय शोक से दग्ध हो रहा था।
पार्वती देवी के मन में क्या है और वे क्या करना चाहती हैं, इस बात को जानकर महादेव जी ने नन्दी को आज्ञा दी कि तुम यहीं खड़े रहो।
तदनन्तर सम्पूर्ण योगेश्वरों के भी ईश्वर महातेजस्वी देवाधिदेव पिनाकधारी शिव ने योग बल का आश्रय ले अपने भयानक सेवकों द्वारा उस यज्ञ को सहसा नष्ट करा दिया।
राजन् ! भगवान् शिव के अनुचरों में से कोई तो सिंहनाद करने लगे, किन्हीं ने अट्टहास करना आरम्भ कर दिया तथा दूसरे यज्ञाग्नि को बुझाने के लिये उस पर रक्त्त की वर्षा करने लगे। कोई विकराल मुखवाले पार्षद यज्ञ के यूपों को उखाड़ कर वहाँ चारों ओर चक्कर लगाने लगे। दूसरों ने यज्ञ के परिचारकों को अपने मुख का ग्रास बना लिया। इस प्रकार जब सब ओर से आघात होने लगा, तब वह यज्ञ मृग का रूप धारण करके आकाश की ओर ही भाग चला।
यज्ञ को मृग का रूप धारण करके भागते देख भगवान् शिव ने धनुष हाथ में लेकर अपने बाण के द्वारा उसका पीछा किया। तत्पश्चात् अमित तेजस्वी देवेश्वर महादेव जी के क्रोध के कारण उनके ललाट से भयङ्कर पसीने की बूँद प्रकट हुई। उस पसीने के विन्दु के पृथ्वी पर पड़ते ही कालाग्नि के समान विशाल अग्नि पुञ्ज का प्रादुर्भाव हुआ।
उस समय उस आगसे एक नाटा-सा पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसकी आँखे बहुत ही लाल थीं। दाढ़ी और मूँछ के बाल भूरे रङ्ग के थे। वह देखने में बड़ा भयङ्कर जान पड़ता था।
उसके केश ऊपर की ओर उठे हुये थे। उसके सारे अङ्ग बाज और उल्लू के समान अतिशय रोमावलियों से भरे थे। शरीर का रङ्ग काला और विकराल था। उसके वस्त्र लाल रङ्ग के थे। उस महान् शक्त्ति शाली पुरुष ने उस यज्ञ को उसी प्रकार दग्ध कर दिया, जैसे आग सूखे काठ या घास फूस के ढेर को जला कर भस्म कर डालती है।
तत्वश्चात् वह पुरुष सब ओर विचरने लगा और देवताओं तथा ऋषियों की ओर दौड़ा। उसे देख कर सब देवता भयभीत हो दसों दिशाओं में भाग गये। उस यज्ञ में विचरते हुए उस पुरुष के पैरों की धमक से यह पृथ्वी काँपने लगी।
उस समय सारे जगत् में हाहाकार मच गया। यह सब देखकर भगवान् ब्रह्मा ने महादेव जी को जगत् की यह दुर्दशा दिखाते हुये उनके इस प्रकार कहा।
ब्रह्मा जी बोले – सर्वदेवेश्वर ! प्रभो ! अब आप अपने बढ़े हुये उस क्रोध को शान्त कीजिये। आज से सब देवता आपके भी यज्ञ का भाग दिया करेंगे।
शत्रुओं को संताप देनेवाले महादेव ! ये सब देवता और ऋषि आपके क्रोध से संतप्त होकर कहीं शान्ति नहीं पा रहे हैं।
धर्मज्ञ देवेश्र्वर ! आपके पसीने से जो यह पुरुष प्रकट हुआ है, इसका नाम होगा ज्वर। यह समस्त लोकों में विचरण करेगा।
प्रभो ! आपका तेज रूप यह ज्वर जबतक एक रूप में रहेगा, तब तक यह सारी पृथ्वी इसे धारण करनें में समर्थ न हो सकेगी। अतः इसे अनेक रूपों में विभक्त्त कर दीजिये।
जब ब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा और यज्ञ में भाग मिलने की भी व्यवस्था हो गयी, तब महादेव जी अमिततेजसेवी भगवान् ब्रह्मा से इस प्रकार बोले – ‘तथास्तु’ ऐसा ही हो।
पिनाकधारी शिव को उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई और उनके मुख पर स्मित आ गया। जैसा कि ब्रह्मा जी ने कहा था, उसके अनुसार उन्होंने यज्ञ में भाग प्राप्त कर लिया।
उस समय समस्त धर्मों के ज्ञाता भगवान् शिव ने सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति के लिये ज्वर को अनेक रूपों में बाँट दिया, उसे भी सुन लो।
हाथियों के मस्तक में जो ताप पीड़ा होती है, वही उनका ज्वर है। पर्वतों का ज्वर शिलाजित के रूप में प्रकट होता है। सेवार को पानी का ज्वर समझना चाहिये। सर्पों का ज्वर केंचुल है। गाय, बैलों के खुरों में जो खोरक नाम वाला रोग होता है, यही उनका ज्वर है। पृथ्वी का ज्वर ऊसर के रूप में प्रकट होता है। पशुओं की दृष्टि-शक्त्ति का जो अवरोध होता है, वह भी उनका ज्वर ही है। घोड़ों के गले के छेद में जो मांसखण्ड बढ़ जाता है, वही उनका ज्वर है। मोरों की शिखा का निकलना ही उनके लिये ज्वर है। कोकिल का जो नेत्र रोग है, उसे भी महात्मा शिव ने ज्वर बताया है। समस्त भेड़ों का पित्त भेद भी ज्वर ही है। समस्त तोतों के लिये हिचकी को ही ज्वर बताया गया है। सिंहों में थकावट का होना ही ज्वर करलाता है; परन्तु मनुष्यों में यह ज्वर के नामसे ही प्रसिद्ध है।
(गीता प्रैॅस द्वार प्रकाशित महाभारत से लिया गया)