नदियों के नाम उनके विशिष्ट शब्दगत अर्थ एवं गुणधर्म को लेकर प्रवृत होते हैं। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् मैक्समूलर के विचार माननीय हैं। उनका कथन है- ‘वैदिक सूक्तों में तथा नदियों से सम्बन्धित ऋचाओं में चर्चित नदियों को पुनः वे छोटी हों या बड़ी अलग-अलग नाम दिये गये। सभी प्रदेशों के निवासी यह अनुभव करते थे कि अपने उद्गम-स्त्रोत से लेकर अन्त तक नदी का कोई-न-कोई नामकरण किया जाना चाहिये।‘ इसे नदियों के नामकरण का आधार कहा जा सकता है।
आओ, गङ्गा नदी के प्रचलित कुछ नामों के नामकरण की पृष्ठ भूमि एवं व्युत्पत्ति लब्ध अर्थ जानने का प्रयास करें—
गङ्गा – गङ्गा के प्रति भारतीयों की पूज्य भावना होने से ‘गङ्गा’ शब्द ‘नदीमात्र’ का पर्याय बन गया है। कई नदियों के नामों में निहित ‘गङ्गा’ शब्द ‘नदीमात्र’ का निदर्शक है। इस से निश्चय ही उस नदी की प्रतिष्ठा बढ़ती है। ऐसे कुछ नाम हैं – रामगङ्गा, ऋषिगङ्गा, कालीगङ्गा, धोलगङ्गा, बाणगङ्गा, दूधगङ्गा, पिण्डरगङ्गा आदि।
‘गङ्गा’ शब्द गमनार्थक गम् धातु में औणादिक गन् व टाप् प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी कई व्याख्यायें हैं – ‘गमयतीति गङ्गा’ या ‘गाङगता इति गङ्गा’ ( जो गमनशील रहती है, वह ‘गङ्गा’ है।) ‘गां पृथ्वीं गता इति गङगा’ या ‘गम् अव्ययं स्वर्ग गमयतीति गङ्गा’ ( जो पृथ्वी पर आती है या जो स्वर्ग की ओर ले जाती है ( तारती है ), वह ‘गङ्गा’ है। इसी अर्थवाली एक अन्य व्याख्या है – ‘गम्यते प्राप्यते मोक्षार्थिभिरिति गङ्गा’। ( जहाँ मुमुक्षु मृत्यु की प्राप्ति की इच्छा से जाते हैं, वह ‘गङ्गा’ है। ) इसके कुछ अन्य निर्वचन हैं – ‘गमयति भगवत्पदमिति’ या ‘गम्यते प्राप्यते’ ( जो (स्नानदिद्वारा ) भगवत्प्राप्ति की ओर ले जाती है। ) तथा ‘गमयति प्राणिनम् विशिष्टस्थानमिति’ (प्राणियों को विशिष्ट स्थान में जो पहुँचाती है।)
भागीरथी – राजा भगीरथ द्वारा गङ्गा को स्वर्ग से भूलोक में लाने के कारण उसे यह अभिधान प्राप्त हुआ ( देवीभाग0 9।6।51 ) महाभारत ( वन0 109।18 ) – में भगीरथ को गङ्गा का पिता कह कर सम्बोधित किया गया है – दुहितृत्वे च नृपतिर्गङ्गाम् । ‘भगीरथ’ शब्द में अण् एवं टाप् प्रत्यय लगकर ‘भागीरथी’ शब्द निष्पन्न हुआ। इसकी व्याख्यायें हैं – ‘भगीरथस्य इयम्’ तथा ‘भगीरथेन आनीता तत्सम्बन्धिनी वा।‘
जाह्नवी – जिस प्रकार राजा भगीरथ के कारण गङ्गा को ‘भागीरथी’ की संज्ञा प्राप्त हुई, उसी प्रकार जह्नु मुनि की अपत्य मानी जाने से गङ्गा ‘जाह्नवी’ नाम से ख्यात हुई। पौराणिक कथा के अनुसार गङ्गा नदी जब राजा भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे आ रही थी तो रास्ते में जह्नु मुनि का आश्रम पड़ा। नदी के तेज प्रवाह ने मुनि की यज्ञ भूमि को क्षतिग्रस्त कर डाला। इससे तपस्यारत मुनि का ध्यान भङ्ग हो गया। मारे क्रोध के उन्होंने गङ्गा का प्राशन किया। भगीरथ द्वारा उन्हें गङ्गा के सुरलोक से भूलोक में लाने का प्रयोजन बताने एवं अनुनय-विनय करने पर उनका क्रोध शान्त हुआ। उनके द्वारा जन्घा से गङ्गा को बाहर निकालने पर वह पुनः बहने लगी। मुनि द्वारा आश्रय देने से गङ्गा पुत्री के समान हुई – ‘दुहितृत्वेन जाह्नवीम्’ ( वायुपुराण 91।55 ) और ‘जाह्नवी’ कहलायी। ‘जह्नोरपत्यम्’ विग्रह कर ‘जह्नु’ शब्द से ‘अण्’ प्रत्यय के योग से ‘जाह्नवी’ शब्द की निष्पत्ति होती है। ‘हा’ (छोड़ना) धातुसे ‘नु’ प्रत्यय द्वित्व तथा अन्तलोप करने पर ‘जह्नु’ शब्द निर्मित हुआ। इसकी व्याख्या है – ‘जनान् संहारसमये अपह्नुते’। यानि संहारके समय जनों (प्राणियों)- का अपह्नव (दूर ले जाने या परमपद में पहुँचाने) – के कारण मुनि ‘जह्नु’ कहलाये। इसकी एक अन्य व्याख्या है – ‘जं जनं ह्नुते तिरोभावं नयति इति जह्नुः।‘
विष्णुपदी – ‘विष्णुपदी’ शब्द ‘विष्णु’ और ‘पदी’ इन दो शब्दों का संयुक्त रूप है, जिसका शाब्दिक अर्थ है – विष्णु के पद से निकलने वाली। श्रीमद्भागवत-महापुराण (पञ्चम स्कन्ध) – में वर्णित एक कथा के अनुसार वामनावतार में श्रीविष्णु ने वटु वामन के रूप में राजा बलि से तीन पग भूमि देने का वचन लेकर एक पग को जब अन्तरिक्ष में रखा, तो पादक्षेप से ब्रह्माण्ड में विवर (छिद्र) होकर जलधारा बह निकली, जो बाद में ‘विष्णुपदी’ कहलायी। एक किवदन्ती है कि ब्रह्मा के कमण्डलु से निकला जल जब विष्णु देव के पद (पैर)- के पास पहुँचा, तो पद से नदी की जो धारा बहने लगी, उसे ‘विष्णुपदी’ नाम मिला। इसकी तीन व्याख्यायें हैं- ‘पादाङ्गुष्ठादुदिता विष्णुपदी’, ‘विष्णुपादेन देवी विश्वशिरःस्थिता’ और ‘विष्णुपादाब्जसम्भूता।‘ ‘विष्ण्’ शब्द के निर्माण में विष् धातु (व्याप्त या विस्तारित होना)- में नुक् प्रत्ययका योग है। इसकी व्याख्या है – ‘वेवेष्टि इति।‘ ‘वि’ पूर्वक ‘अश्’ धातु (अन्तर्भेद करना) – में नुण् प्रत्यय लगकर इस शब्द के बनने का अनुमान है। पृथ्वीलोक, द्धुलोक और अन्तरिक्ष इन तीन लोकों में व्याप्त होने के कारण वे ‘विष्णु’ कहलाये। पद् धातु (जाना, हिलना-डुलना)- में ङ्प प्रत्यय के योग से बने ‘पदी’ शब्द का ‘विष्णु’ शब्द से मेल होने से ‘विष्णुपदी’ शब्द का निर्माण हुआ। इसका निर्वचन है – ‘विष्णुरूपा हि सा गङ्गा लोकविस्तारकारिणी।‘
अलकनन्दा – गङ्गा का यह एक आद्ध प्रवाह है। वायुपुराण (41।18)- में गङ्गा की चार धाराओं में एक धारा के रूप में इस का उल्लेख मिलता है, किन्तु यह एक स्वतन्त्र नदी भी है, जिसका उद्भव अलकापुरू पर्वत पर सतोपथ के हिमनदों से होता है।
गंगा के ‘अलकनन्दा’ नाम पड़ने का सम्बन्ध राजा भगीरथ द्वारा गङ्गा को इस लोक में लाने के प्रसङ्ग से है। भगीरथ की कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान् शङ्कर ने अपनी जटा के अलक (केश) – की लट को जब खोला, तो उसमें से जल की धारा बहकर राजा का अनुगमन करने लगी। ‘अलकनन्दा’ में निहित ‘अलक’ शब्द इसी तथ्य की ओर इङ्गित करता है। ‘अलक’ शब्द के मूल में अल् धातु (भूषित करना) है। इसी धातु से आभूषण वाची ‘अलङ्कार’ शब्द भी बना है। अल् धातु में क्वुन् एवं अक् प्रत्यय का मेल होकर व्युत्पन्न ‘अलक’ शब्द ने केश या बाल अर्थ ग्रहण किया। ‘नन्दा’ शब्द का अर्थ है – आनन्द देनेवाली। ‘आनन्दित करना’ अर्थवाची ‘नन्द’ धातु में अच् एवं टाप् प्रत्यय जुड़कर ‘नन्दा’ शब्द सिद्ध हुआ। इसका निर्वचन है – ‘अलति नन्दयति च अलकनन्दा।‘
मन्दाकिनी – ‘मन्दाकिनी’ नामकी एक अन्य नदी भी है, किन्तु मूलतः वह पुण्यतोया गङ्गा की धारा है। यह पहले स्वर्ग में थीं। (वायुपुराण अ0 42) स्कन्द-पुराण (काशीखण्ड) – में ‘गङ्गादशहरा’ स्तोत्र में तथा रघुवंश (13।48) –में गङ्गा के लिये ‘मन्दाकिनी’ नाम प्रयुक्त है।
‘मन्दाकिनी’ नाम इसके मन्द-मन्द बहने सा परिचायक है। कालिदास ने ‘रघुवंश’ में इसे ‘स्तिमित-प्रवाहा’ बताया है। नदी का मन्दकिनी नाम इसके मन्द बहने का द्धोतक है। सन्द् धातुमें अकच् प्रत्यय लगने पर यह ‘धीमी बहने वाली’ होने का बोध कराती है। इसका निर्वचन है – ‘मन्दम् अकितुं शीलमस्याः’ (मन्द गति से बहना जिसकी प्रवृति है।) समतल भूभाग में मन्द गति से बहने के कारण इसका यह नाम पड़ा। इसकी एक अन्य व्याख्या है – ‘मन्दाकिनी मन्दानि स्रोतांसि सन्ति यस्याः इति मन्दाकिनी।‘
हरिप्रिया – पौराणिक ग्रन्थों में गङ्गा का भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में उल्लेख मिलता है। गङ्गा का ‘हरिप्रिया’ नाम उनकी प्रिय पत्नी होने का परिचायक है। ‘हरि’ भगवान् विष्णु का एक अन्य नाम है। यह शब्द हरण करना अर्थवाली ‘हृ’ धातु में इन् प्रत्यय करके बनता है। दूसरों का मन हरने वाला ‘हरि’ हुआ। ‘प्री’ धातु (तृप्त करना) – में ‘क’ के जुड़ने से तैयार शब्द ‘प्रिय’ ने जिसके प्रति अधिक प्रीति या प्रेम हो, यह अर्थ ग्रहण किया। इस शब्द में स्त्रीवाची ‘टाप्’ प्रत्यय लगने से ‘प्रिया’ शब्द सिद्ध हुआ।
त्रिपथगा – ‘त्रिपथगा’ शब्द का अर्थ है – तीन पथों की ओर गमन करने वाली। वाल्मीकि रामायण (1।44।6) – में आता है कि राजा भगीरथ गङ्गा को तीन धाराओं में बहने को कहते हैं। वे यह भी कहते हैं कि इससे तुम ‘त्रिपथगा’ नाम पाओगी – ‘गङ्गा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च। त्रीन् पथो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगा स्मृता।।‘ रघुवंश इसका उल्लेख ‘त्रिस्त्रोता’ रूप में मिलता है। पद्मपुराण (उत्तर0 अध्याय 22) – के अनुसार भगवान् शङ्कर जटा खोलकर गङ्गा को तीन धाराओं में प्रवाहित कराते हैं; तदनुसार ये तीन धारायें स्वर्गलोक, पाताल और मर्त्यलोक में जाती हैं। स्वर्गलोक में वह ‘स्वर्गङ्गा’, मर्त्यलोक में ‘भागीरथी’ और पाताललोक में ‘पाताल गङ्गा’ कहलायी। इन लोकों में वह क्रमशः देवताओं, मानवों एवं नागों को तारती है – ‘क्षितौ तारयते मर्त्यान् नागांस्तारयतेSप्यधः। दिवि तारयते देवान् तेन त्रिपथगा स्मृताः।‘
‘त्रिपथगा’ शब्द की रचना त्रि+पथ+गा के रूप में होती है। ‘त्रि’ का अर्थ है – तीन और ‘पथ’ का अर्थ है – राह। यह शब्द ‘पथ्’ धातु जिसका अर्थ रास्ता तय करना होता है में घञर्थे ‘क’ लगने से बनता है। ‘गा’ शब्द ‘गम्’ धातु (जाना) – से व्युत्पन्न है। उसका अर्थ है – ‘जानेवाली’। इस तरह तीन मार्गों – तीन लोकों की ओर जानेसे यह नाम सार्थक कहा जा सकता है।
‘त्रिस्त्रोता’ का अर्थ भी लगभग वही है। इस शब्द के मूल में ‘स्त्रु’ धातु है, जिसका अर्थ है – बहना। इसमें विस्तार करना अर्थवाली तन् धातु और ‘तीन’ अर्थवाले ‘त्रि’ शब्द का योग होकर ‘त्रिस्त्रोता’ शब्द तैयार हुआ।
पातालगङ्गा – त्रिभुवनों में अन्तिम पाताललोक है, जहाँ नागों का वास है। यहाँ गङ्गानदी के बहने से उसे ‘पातालगङ्गा’ की संज्ञा प्राप्त हुई। ‘पतन्ति अस्मिन् दुष्क्रियावन्तः अधर्मेण वा’ विग्रह कर पत् धातु (गिरना)- में आलञ् प्रत्यय जुड़ कर ‘पाताल’ शब्द सिद्ध हुआ। ‘पादस्य तले इति पातालः’ – ऐसा इसका निर्वचन है। इस आधार पर जहाँ पापी, दुराचारी आदि अधर्म कृत्य करने से गिरते हैं, या जो पैरों के तल की भूमि है, वह पाताल है। ‘पाद’ एवं ‘तल’ इन दो शब्दों के मेल से बने ‘पाताल’ शब्द की उत्पत्ति में वही नियम लागु होता है, जो ‘स्वर्गङ्गा’ शब्द की निर्मिति में हुआ। यहाँ ‘द’ और ‘त’ एक ही वर्ग के वर्ण होने से ‘द’ का लोप हुआ है।
(गीता प्रैॅस द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका के गङ्गा विशेषाङ्क में श्री शरद् चन्द्रजी पेंढारकर द्वारा लिखित एक लेख से लिया गया)