वर्तमान काल में दिव्य नदी गङ्गा का जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि ये सिञ्चायी अथवा कपड़े धोने के लिये भी अयोग्य है। ये वो नदी है जिसके जल को अमृत तुल्य माना जाता है तो जो सर्व पाप विनाशनी मानी जाती है। आधुनिक समय में उद्योगों तथा नगरों के मल से प्रभावित हो कर ये नदी अपना दिव्य रूप खो सा चुकी है। विभिन्न प्रकार के प्रयास तथा सुझाव प्रस्तावित किये जाते हैं गङ्गा नदी के जल को शुद्ध करने के लिये।
पुराणों में पहले से ही ये व्यवस्था की गयी थी परन्तु उन पौराणिक मूल्यों का ह्रास होने के कारण मनुष्य जाति ने दिव्य नदी को प्रदूषित कर दिया है।
इस लेख के माध्यम से हम बताना चाहते हैं कि कैसे पुराणों में गङ्गा नदी को स्वच्छ रखने हेतु कौन से कार्य वर्जित थे।
गङ्गा जी में वर्ज्य शास्त्रोक्त्त कर्म
गङ्गां पुण्यजलां प्राप्य चतुर्दश विवर्जयेत्। शौचमाचमनं केशं निर्माल्यं मलघर्षणम्।।
गात्रसंवाहनं क्रीडां प्रतिग्रहमथो रतिम्। अन्यतीर्थरतिं चैव अन्यतीर्थप्रशंसनम्।।
वस्त्रत्यागमथाघातं संतारं च विशेषतः। परिधेयाम्बराम्बूनि गङ्गांस्त्रोतसि न त्यजेत्।।
न दन्तधावनं कुर्याद्गङगागर्भे विचक्षणः। कुर्याच्चेन्मोहतः पुण्यं न गङ्गास्नानजं लभेत्।।
प्रभातेऽन्यत्र तां कृत्वा दन्तकाष्ठादिकक्रियाम्। रात्रिवासं परित्यज्य गङ्गायां स्नानमाचरेत्।।
बाह्यभूमिमगत्वा यो गङ्गायां स्नानमाचरेत्। गङ्गास्नानफलं सोऽपि सम्पूर्णं च लभेन्न हि।।
मूत्रं वाऽथ पुरीषं वा गङ्गातीरे करोति यः। न दृष्टा निष्कृतिस्तस्य कल्पकोटिशतैरपि।।
श्लेष्माणं वाऽपि निष्ठीवं दूषिकाम्वाऽश्रु वा मलम्। गङ्गातीरे त्यजेद्यस्तु स नूनं नारकी भवेत्।।
उच्छिष्टं कफकञ्चैव गङ्गागर्भे च यस्त्यजेत्। स याति नरकं घोरं ब्रह्महत्यां च विन्दति।।
गङगारोधसि यः पापं कुरुते मूढधीर्नरः। तदक्षयं भवेन्नूनं नान्यतीर्थेषु शाम्यति।।
अन्यतीर्थे कृतं पापं गङ्गायां च विनश्यति। गङ्गायां यत्कृतं पापं तत्कृत्राऽपि न शाम्यति।।
तस्मात्पापं न कर्तव्यं गङ्गायां शास्त्रकोविदैः। कर्मणा मनसा वाचा कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः।।
पुण्यतोया भगवती गङ्गा के निकट जाकर विशेष रूप से निम्नलिखित चौदह कार्य कभी न करने चाहिये –
- समीप में शौच
- गङ्गा जी में आचमन (कुल्ला)
- बाल झाड़ना
- निर्माल्य (भगवान् को चढ़ी हुई पूजा-सामग्री) डालना
- मैल छुड़ाना
- शरीर मलना
- क्रीडा करना
- दान लेना
- रतिक्रिया
- दूसरे तीर्थ के प्रति अनुराग
- दूसरे तीर्थ की महिमा गाना
- कपड़ा धोना या छोड़ना
- जल पीटना
- तैरना
भगवती गङ्गा के पावन जल में स्नान करने के पश्चात् धारण किये हुए वस्त्रों को जल में निचोड़ना नहीं चाहिये। विद्वान् व्यक्त्ति को चाहिये कि वह गङ्गाजल में दन्दधावन न करे, यदि अज्ञानवश करता है तो उसे गङ्गास्नान का पुण्य प्राप्त नहीं होता। प्रातःकाल गङ्गास्नान से पूर्व अन्य स्थान पर शौच-दन्तधावनादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर तथा रात्रि में पहने हुये वस्त्रों को परिवर्तित कर, पवित्र वस्त्र धारण कर ही गङ्गाजी में स्नान करना चाहिये। जो मनुष्य दन्तधावनादि क्रियाओं को गङ्गा क्षेत्र से दूर न करके गङ्गा क्षेत्र में ही करता है, उसे गङ्गा स्नान का सम्पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। गङ्गा तट पर जो मनुष्य मल-मूत्र आदि का परित्याग करता है, उसका नरकों से करोड़ों कल्पों में भी उद्धार नहीं हो सकता। जो मनुष्य गङ्गा जी में कफ अथवा थूक अथवा आँख का मल (कीचड़) अथवा किसी शरीरिक मल या अन्य किसी भी प्रकार के मल को छोड़ता है, वह नीश्चय ही नरक प्राप्त करता है। जो मनुष्य गङ्गा जी में उच्छिष्ट (जूठा, बचा हुआ या बासी) पदार्थों अथवा कफ आदि दैहिक मलों का प्रक्षेप करता है, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है और दीर्घकाल पर्यन्त भयानक नरक-यातना भोगनी पड़ती है। जो मूर्ख मनुष्य अज्ञानवश गङ्गातट पर पापाचरण करता है, उसका वह पाप अक्षय हो जाता है तथा उस पाप का क्षय किसी भी तीर्थ में नहीं हो सकता। दूसरे तीर्थों में किये गये पाप गङ्गा जी के प्रभाव से विनष्ट हो जाते हैं, किन्तु गङ्गा तट पर किये गये पापों का परिशमन किसी भी तीर्थ में नहीं हो पाताष अतएव शास्त्रज्ञ मनुष्य को गङ्गा की सन्निधि में किये गये पापों की गुरुता को समझ कर मन, वाणी अथवा कर्म से कभी भी पापा चरण नहीं करना चाहिये, अपितु सर्वदा धर्माचरण ही करना चाहिये।
(पद्मपुराण क्रियायोगसारखण्ड)
(गीता प्रैॅस द्वारा प्रकाशित कल्याण पत्रिका से लिया गया)