परम भक्तिमती द्रौपदी जिनकी गणना महान सतियों में होती है पाण्डवों की पत्नी तथा भगवान श्री कृष्ण की परम भक्त तथा प्रिय थीं। जब हस्तिनापुर की भरी सभा में दुशासन द्वारा अपमानित हो रही थीं और कोई उनकी सहायता हेतु आगे ना आया तो उन्होनें अपने अराध्य तथा परम सखा कृष्ण का ध्यान किया। उनके मन से ये प्रार्थना रूपी वचन निकले जिन्हें सुनकर भगवान कृष्ण क्षण भर का विलम्ब ना करते हुये उनकी रक्षा के लिये आ गये:
गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय।।
कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव।
हे नाथ। हे रमानाथ। व्रजनाथार्त्तिनाशन।।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द। कुरुमध्येऽवसीदतीम्। (महाo सभाo ६८ । ४१–४४)
हिन्दी में इसका अनुवाद
हे गोविन्द। हे द्वारकावासी। हे सच्चिदानन्दस्वरूप प्रेमघन। हे गोपीजनवल्लभ। हे केशव। मैं कौरवों द्वारा अपमानित हो रही हूँ, इस बात को आप नहीं जानते? हे नाथ। हे रमानाथ। हे व्रजनाथ, हे आर्तिनाशन जनार्दन। मैं कौरव-समुद्र में डूब रही हूँ, आप मुझे इस से निकालिये। कृष्ण। कृष्ण। महायोगी। विश्वात्मा। विश्व के जीवनदाता गोविन्द। मैं कौरवों से घिरकर बड़े सङ्कट में पड़ी हूँ, आपकी शरण हूँ, मेरी रक्षा कीजिये।
ये तो आप जानते ही हैंं कि भगवान कृष्ण ने ना ही द्रौपदी की केवल रक्षा की वरन् पाण्डवों को भविष्य में आने वाले प्रत्येक सङ्कट से उबारा तथा धर्म की स्थापना की।
ये द्रौपदी की भक्ति ही थी जो भगवान कृष्ण को बाध्य कर उसके पास खीञ्च लायी।