पवित्राणां पवित्रं या मङ्गलानां च मङ्गलम् । महेश्वरशिरोभ्रष्टा सर्वपापहरा शुभा ।।
गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेम्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।
स्नानात् पानाच्च जाह्नव्यां पितॄणां तर्पणात्तथा। महापातकवृन्दानि क्षयं यान्ति दिने दिने।।
तपोभिर्बहुभिर्यज्ञैर्व्रतैर्नानाविधैस्तथा । पुरुदानैर्गतिर्या च गङ्गां संसेव्य तां लभेत्।।
पुनाति कीर्तिता पापं दृष्टा भद्रं प्रयच्छति। अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम्।।
भगवान् शङ्कर के मस्तक से होकर निकली हुई गङ्गा सब पापों को हरने वाली और शुभकारिणी हैं। वे पवित्रों को भी पवित्र करने वाली और मङ्गलमय पदार्थों के लिये भी मङ्गलकारिणी हैं।
जो सैकड़ों योजन दूर से भी ‘गङ्गा-गङ्गा ‘ ऐसा कहता है, वह सब पापों से मुक्त्त हो विष्णु लोक को प्राप्त होता है। गङ्गा जी में स्नान, जल का पान और उस से पितरों का तर्पण करने से महापातकों की राशि का प्रतिदिन क्षय होता रहता है।
तपस्या, बहुत-से यज्ञ, नाना प्रकार के व्रत तथा पुष्कल दान करने से जो गति प्राप्त होती है, गङ्गा जी का सेवन करने से मनुष्य उसी गति को पा लेता है।
गङ्गा जी नाम लेने मात्र से पापों को धो देती हैं, दर्शन करने पर कल्याण प्रदान करती हैं तथा स्नान करने और जल पीने पर सात पीढ़ियों तक को पवित्र कर देती हैं।
(गीता प्रैॅस द्वारा प्रकाशित पत्रिका कल्याण से लिया गया)