महाभारत के तीसरे खण्ड में धृतराष्ट्र सञ्जय से श्री कृष्ण के नामों के अर्थ तथा व्युतपत्ति के बारे में पूछते हैं तो सञ्जय अपनी सृमिति से ही उन्हें कुछ नामों के बारे में बताते हैं–
भगवान् समस्त प्राणियों के निवासस्थान हैं तथा वे सब भूतों में वास करते हैं, इस लिये ‘वसु’ हैं एवं देवताओं की उत्पत्ति के स्थान होने से और समस्त देवता उनमें वास करते हैं, इसलिये उन्हें ‘देव’ कहा जाता है। अतएव उनका नाम ‘वासुदेव’ है, ऐसा जानना चाहिये।
बृहत् अर्थात् व्यापक होने के कारण वे ही ‘विष्णु’ कहलाते हैं।
मौन, ध्यान और योग से उनका बोध अथवा साक्षात्कार होता है; इसलिये आप उन्हें ‘माधव’ समझें। मधु शब्द से प्रतिपादित पृथ्वी आदि सम्पूर्ण तत्त्वों के उवादान एवं अधिष्ठान होने के कारण मधुसूदन श्रीकृष्ण को ‘मधुहा’ कहा गया है।
‘कृष्’ धातु सत्ता अर्थ का वाचक है और ‘ण’ शब्द आनन्द अर्थ का बोध कराता है, इन दोनों भावों से युक्त्त होने के कारण यदुकुल में अवतीर्ण हुये नित्य आनन्दस्वरूप श्रीविष्णु ‘कृष्ण’ कहलाते हैं।
नित्य, अक्षय, अविनाशी एवं परम भगवद्धाम का नाम पुण्डरीक है। उसमें स्थित होकर जो अक्षतभावसे विराजते हैं, वे भगवान् ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहलाते हैं। (अथवा पुण्डरीक-कमल के समान उनके अक्षि –नेत्र हैं, इसलिये उनका नाम पुण्डरीकाक्ष है)। दस्युजनों को त्रास (अर्दन या पीडा) देने के कारण उनको ‘जनार्दन’ कहते हैं।
वे सत्य से भी च्युत नहीं होते और न सत्त्व से अलग ही होते हैं, इसलिये सद्भाव के सम्बन्ध से उनका नाम ‘सात्वत’ है। आर्ष कहते हैं वेद को, उससे भासित होने के कारण भगवान् का नाम ‘आर्षभ’ है। आर्षभ के योग से ही ये ‘वृषभेक्षण’ कहलाते हैं (वृषभ का अर्थ है वेद, वही ईक्षण-नेत्र के समान उनका ज्ञापक हैं, इस व्युत्पत्ति के अनुसार वृष-भेक्षण नाम की सिद्धि होती है)।
शत्रु सेनाओं पर विजय पाने वाले ये भगवान् श्रीकृष्ण किसी जन्म दाता के द्वारा जन्म ग्रहण नहीं करते हैं, इस लिये ‘अज’ कहलाते हैं। देवता स्वयं प्रकाशरूप होते है, अतः उत्कृष्ट रूप से प्रकाशित होने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण को ‘उदर’ कहा गया है और दम (इन्द्रिय संयम) नामक गुण से सम्पन्न होने के कारण उनका नाम ‘दाम’ है। इस प्रकार दाम और उदर इन दोनों शब्दों के संयोग से वे ‘दामोदर’ कहलाते हैं।
वे हर्ष अर्थात् सुख से युक्त्त, होने के कारण हृषीक हैं और सुख-ऐश्र्वर्य से सम्पन्न होने के कारण ‘ईश’ कहे गये हैं। इस प्रकार वे भगवान् ‘हृषीकेश’ नाम धारण करते हैं। अपनी दोनों बाहुओं द्वारा भगवान् इस पृथ्वी और आकास को धारण करते हैं, इस लिये उनका नाम ‘महाबाहु’ है।
श्रीकृष्ण कभी नीचे गिरकर क्षीण नहीं होते, अतः (‘अधो न क्षीयते जातु’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अधोक्षज’ कहलाते हैं। ये नरों (जीवात्माओं) के अयन (आश्रय) हैं, इसलिये उन्हें ‘नारायण’ भी कहते हैं।
वे सर्वत्र परिपूर्ण हैं तथा सबके निवासस्थान हैं, इसलिये ‘पुरुष’ हैं और सब पुरुषों में उत्तम होने के कारण उनकी ‘पुरुषोत्तम’ संज्ञा है। ये सत् और असत् सबकी उत्पत्ति और लय के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबका ज्ञान रखते हैं; इसलिये उन्हें ‘सर्व’ कहते हैं।
श्रीकृष्ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य उनमें प्रतिष्ठित है। वे भगवान् गोविन्द सत्य से भी उत्कृष्ट सत्य हैं। अतः उनका एक नाम ‘सत्य’ भी है।
विक्रमण ( वामनावतार में तीनों लोकों को आक्रान्त ) करने के कारण वे भगवान् ‘विष्णु’ कहलाते हैं। वे सब पर विजय पाने से ‘जिष्णु’ शाश्वत् (नित्य) होने से अनन्त तथा गौओं ( इन्द्रियों ) के ज्ञाता और प्रकाशक होने के कारण (गां विन्दति) इस व्युत्पत्ति अनुसार ‘गोविन्द’ कहलाते हैं।