रामायण व महाभारत ऐसे महाकाव्य हैं जिनसे मानवता को जीवन यापन करने के लिये नीति, कर्तव्य तथा त्याग का बोध होता है। दोनों ही महाकाव्यों में अधर्म की पराजय तथा धर्म की सफलता दर्शायी गयी है। दोनों का घटनाक्रम कुछ ऐसा है कि विभिन्न पात्रों के पास धर्म का मार्ग चुनने के लिये अवसर उत्पन्न होते हैं। वो पात्र अपनी विवेक, वृत्ति तथा ज्ञान के अनुसार अपना अपना मार्ग चुनते हैं। रामायण में रावण के दो भाई विभीषण तथा कुम्भकर्ण ने भिन्न-भिन्न मार्ग चुना। वो दोनों ही ज्ञानी तथा वेदों में पारङ्गत थे। दोनों के मतानुसार रावण का कृत्य निन्दनीय था। इसके पश्चात भी कुम्भकर्ण ने युद्ध में भाग लिया जबकि विभीषण ने भगवान राम का साथ दिया।
महाभारत के प्रसङ्गों में ऐसी घटनायें घटीं जिनमें पात्रों को धर्म तथा अधर्म का मार्ग चुनने के लिये अवसर मिले। विभीषण तथा कुम्भकर्ण की भाँति ही महाभारत में भी दो भाई युयुत्सु तथा विकर्ण ने दुर्योधन के कृत्य का विरोध किया। परन्तु एक ने इसके पश्चात भी दुर्योधन की ओर से युद्ध में भाग लिया।
हस्तिनापुर की सभा में द्रौपदी के चीर हरण का यत्न हो रहा था। कोई भी दुर्योधन का विरोध नहीं कर रहा था। विकर्ण जो कि दुर्योधन का ही अनुज था इस बात से सहमत नहीं था। उसने इस बात का विरोध करते हुये सभा का त्याग कर दिया। परन्तु जब महाभारत का युद्ध हुआ तो उसने दुर्योधन की ओर से ही उसमें भाग लिया। भीम ने उससे कहा कि तुमने सभा में दुर्योधन का विरोध किया था इस लिये मैं तुमसे युद्ध नहीं कर सकता। परन्तु कुम्भकर्ण की भाँति विकर्ण भी मारा गया। ये भी कहा जाता है कि भीम ने विकर्ण का वध करने पर शोक जताते हुये कहा था कि ये युद्ध कितना विनाशकारी है जिसमें विकर्ण जैसे धर्मपरायण योद्धा का भी वध करना पड़ा।
महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले युधिष्ठर ने ये घोषणा कर दी कि जो कोई अपना दल चुनना चाहे वो चुन सकता है। युयुत्सु ने कौरव दल छोड़ कर पाण्डव दल को अपना लिया। इसकी तुलना विभीषण से की जाती है क्योंकि उन्होनें भी भगवान राम को चुनना श्रेयकर समझा था।
युयुत्सु तथा विकर्ण नें विभीषण तथा कुम्भकर्ण जैसी भूमिक महाभारत में निभायी।