अशोक वाटिका व्यथित सीता देवी की सेवा में रत विभीषण की पत्नी त्रिजटा ने देवी सीता को साहस बधाँया तथा अपनी पुत्री की भाँति प्रेम दिया।
वो जानती थीं कि रावण का विनाश निश्चित है। उनको ज्ञात हो चुका था कि भगवान राम का एक दूत आयेगा जो कि सम्पूर्ण लङ्का को जलाकर दग्ध कर देगा।
विदेह कुमारी को अत्यन्त दुःखी देख त्रिजटा ने उन्हें अपना स्वप्न सुनाया। वह कहने लगी – मैंने स्वप्न में देखा रघुनाथ जी आकाश गामी हाथी दाँत की बनी शिबिका, जिसमें हजार घोड़े जुते थे, श्वेत पुष्पों की माला धारण किये तथा श्वेत वस्त्र पहने, लक्ष्मण के साथ लंका में पधारे हैं। मैंने यह भी देखा कि सीता श्वेत वस्त्र पहने श्वेत पर्वत शिखर पर जो समुद्र से घिरा है, बैठी हैं।
गजदन्तमयीं दिव्यां शिबिकामन्तरिक्षगाम्।।
युक्तां वाजिसहस्रेण स्वयमास्थाय राघवः। शुक्लमाल्याम्बरधरो लक्ष्मणेन समागतः।।
स्वप्ने चाद्य मया दृष्टा सीता शुक्लाम्बरावृता।
सागरेण परिक्षिप्तं श्वेतपर्वतमास्थिता।।
रामेण संगता सीता भास्करेण प्रभा यथा। (वा0 रा0 5।27।9-12 )
वहाँ वे राम जी से मिलीं। साथ ही मैंने रघुनाथ जी को चार दाँतों वाले विशाल गजराज पर लक्ष्मण सहित आरूढ़ देखा।
राघवश्च पुनर्दृष्टश्चतुर्दन्तं महागजम्।।
आरूढः शैलसङ्काशं चकास सहलक्ष्मणः। (वा0 रा0 5।27।12-13)
सत्य पराक्रमी पुरुषोत्तम राम को लक्ष्मण और सीता सहित सूर्य तुल्य दिव्य पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो उत्तर दिशा में गमन करते हुये भी मैंने देखा।
ततोsन्यत्र मया दृष्टो रामः सत्यपराक्रमः।।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया सह वीर्यवान्।
आरुह्य पुष्पकं दिव्यं विमानं सूर्यसंनिभम्।।
उत्तरा दिशमालोच्य प्रस्थितः पुरुषोत्तमः। ( वा0रा0 5।27।18-20)
त्रिजटा ने रावण के सभी पुत्रों को मूँड़ मुड़ाये तेल में नहाये देखा। उसने रावण को सुअर पर, इन्द्र जीत को सूँस पर, कुम्भकर्ण को ऊँट पर सवार हो कर दक्षिण दिशा को जाते देखा।
रावणस्य सुताः सर्वे मुण्डास्तैलसमुक्षिताः।
वराहेण दशग्रीवः शिशुमारेण चेन्द्रजित्।।
उष्ट्रेण कुम्भकर्णश्च प्रायातो दक्षिणां दिशम्। (वा0 रा0 5।27।31-32)
साथ ही त्रिजटा ने आगे कहा कि मैंने रावण द्वारा सुरक्षित लङ्कापुरी को श्री राम दूत बन कर आये हुये वेगशाली वानर द्वारा जलाकर भसम करते देखा।
लड़्का दृष्टा मया स्वप्ने रावणेनाभिरक्षिता।
दग्धा रामस्य दूतेन वानरेण तरस्विना।। (वा0 रा0 5।27।38)
इन स्वप्नों का फल वर्णन करते हुये त्रिजटा ने कहा कि मुझे तो अब जानकी के अभीष्ट मनोर की सिद्धि उपस्थित दिखायी देती है। राक्षस राज रावण के विनाश तथा रघुनाथ जी की विजय में कोई अधिक विलम्ब नहीं है –
अर्थसिद्धिं तु वैदेह्याः पश्याम्यहमुपस्थितम्।
राक्षसेन्द्रविनाशं च विजयं राघवस्य च।। (वा0 रा0 5।27।49)
(गीता प्रैॅस के द्वारा प्रकाशित कल्याण पत्रिका से लिया गया)